Friday, April 19, 2013

वर्णाक्षर, शब्द तथा भाषा का निर्माण 

साक्षात् परब्रह्म का ही विश्वरूप स्थिरचर आदि संपूर्ण विश्व है, जो गीता के ग्यारहवे अध्याय का मुख्य प्रतिपाध्य विषय है तथा ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद तथा उपनिषदों से भी परमात्मा के विश्वरूप की पुष्टि होती है। इसी प्रकार ध्वन्यात्मक ऊर्जा के रूप में शब्दब्रह्म है तथा उसका विश्वरूप ही संपूर्ण श्रृष्टि है। श्वेताशतर उपनिषद् (४/१) में कहा है - " य एकोवर्णो बहुधा शक्ति योगात वर्णानेनकान्निहितार्थो  दधाति ", अर्थात एक अवर्ण शक्ति के योग से अनेक वर्णों को निश्चित हेतु से धारण करता  है। इसी बात को की एक अर्थहीन ध्वनि कैसे शब्दों में परिणत होकर निश्चित अर्थ प्रकट करने में समर्थ होती है, पाणिनीय शिक्षा क्रम में वैज्ञानिक रीती से बताया गया है - 
"आत्मा बुध्दया समेत्यार्थान मनो युंकउते विवक्षया । 
मन: कायाग्निमाहन्ति स प्रेरयति मारुतम ॥६॥ 
मारुतस्तूरसि चरन्मंद्रम जनयते स्वरम ॥ ७॥ 
सोदिर्णो मुर्ध्याभिह्तो वक्त्रमापद्य मारुत: ॥ ८॥ 
वर्णान जनयते तेषां विभाग: पञ्चधा स्मृत: ॥ ९॥ "

१. आत्मा बुध्दि के साथ मिलकर कुछ भाव प्रकट करना चाहती है, यह प्रथमावस्था है (६) यहाँ शब्द आत्मबुध्दि रूप ही है । 
२.  वह आत्मा बोलने की इच्छा से मन को नियुक्त करता है, यहाँ मन को कुछ सन्देश मिलता है (७) । यह दूसरी अवस्था है, यहाँ शब्द ने मन का रूप धारण किया है । 
३. मन आत्मा का सन्देश प्रकट करने की इच्छा से शरीर अग्नि को ताडन करके वायु को प्रेरित करती है । उस तीसरे अवस्था में शब्दों ने वायु का रूप धारण किया है (८)। यह वायु हृदय से संचारित होने के समय मन्द्र शब्द करता है । 
यहाँ तक "अ" (एक: अवर्ण: ) वर्णहीन रूप इस शब्द का होता है । यही अवर्ण शब्द अनेक वर्णो से युक्त शब्द की उत्पत्ति करेगा । देखिये - 
४. वही आत्मा का सन्देश प्रकट करने के लिए जो मन्द्र (धीमा ) स्वर छाती में हुआ, वह कंठ, तालु , मूर्धा, दन्त, और ओष्ठ इन पांच स्थानों में जाकर उन स्थानों के वर्णो में परिणत होता है (९) । 

यही "अ" वर्ण अनेक वर्णो को धारण करता है। यहाँ वर्णो के योग से शब्द रूप प्रकट होता है तथा अपने अन्दर से लाये हुए आत्मा के आशय को प्रकट कर देता है । अस्फुट शब्द स्फुट शब्द में परिणत होकर भाषा का रूप धारण कर लेता है। इस प्रकार आत्मा बुध्दि की विवक्षा मन में आत्मा का संदेश , अग्नि (उर्जा) प्रेरित वायु में स्थिति , हृदय में वायु से मन्द्र शब्द की उत्पत्ति तथा अंत में इन अक्षरों, शब्दों से सम्पूर्ण भाषा का विस्तार ।  

"अ" वर्ण से विभिन्न वर्णो का विकास - 
१. कंठ में प्रथम "अ" कार का उत्पन्न होता है। 
२. यही "अ" कार तालु स्थान में "इ" कार का रूप धारण करता है । 
३. वाही "अ" कार मूर्धा स्थान में "ऋ" कार का रूप लेता है । 
४. वाही "अ" कार दन्त्य स्थान में "ऌ" कार का रूप स्वीकारता है । 
५. और वाही "अ" कार ओष्ठ स्थान में "उ" का बनता है । 

इस प्रकार शब्द एक ही "अ" कार स्थान भेद से, अन्त: करण से ऊर्जा सहित वायु के आघात के आधार पर "अ, इ, ऌ , उ इन पञ्च अक्षरों में परिणत होता है । इसि "अ" का विश्वरूप इन पांच स्वर और इनके ह्रस्व - दीर्घ - प्लुत, उदात- अनुदात- स्वारित तथा सानुनासिक - निरनुनासिक आदि भेदों से अनन्त रूप में प्रकट होता है। 

जगत में जितनी भाषाए है उनके शब्द इसी प्रकार एक ही "अ" कार रूप  है। इसलिए गीता में श्रीकृष्ण  कहते है - अक्षराणामकारस्मि (गीता १०/३३ ) । अब हम मूल स्वर "अ" से सम्पूर्ण वर्णमाल तथा अकार के सहस्त्रो रूपांतरित वर्ण देखे -
मूल स्वर "अ" :
अकार के बने पांच  स्वर…….              अ, इ, ऋ, ऌ , उ । 
इससे बने पांच व्यंजन .............            ह, य , र , ल , व ।
ये ही वर्ण हकार के बड़े दबाव के सथ…     घ , झ , ढ , ध , भ  । 
हकार दबाव न्यून करने से .......            ग, ज, ड , द , ब  । 
दबाव बहुत कम करने से ....                   क, च , ट , त , प । 
"ह"कार का कुछ दबाव डालने से .....         ख, छ , ठ , थ, फ । 
नाक में उच्चारण करने से ...........              ड , ज्ञ , ण , न , म ।  

इनमे स्वर मिलने से प्रत्येक व्यंजन के कम से कम १२ अक्षर बनते है । इस प्रकार सहस्त्रो अक्षर एक अकार से बन जाते है । 
अक्षरों के जो विभिन्न प्रकार बने है उन सबका उपयोग केवल देवनगरी लिपि में लिखी हुई संस्कृत में ही होता है । प्रत्येक ध्वनि का यथावत अंकन केवल देवनागरी में ही हो सकता है । संस्कृत के प्रत्येक शब्द में उसमे सम्मिलित सभी वर्णाक्षरो में अर्थ समाहित होता है । संस्कृत भाषा का कोई भी वर्णाक्षर, शब्द, निरर्थक ध्वनि नहीं होता । विभिन्न वर्णाक्षरो की उत्पत्ति हेतु परमात्मा ने मानव मुख में जो स्वरयंत्र विधान किया है, उसका समुचित उपयोग मात्र संस्कृत भाषा में ही होता है। इसलिए विश्व के आधुनिक वैज्ञानिक, भाषाशास्त्री तथा वैयाकर्णाचार्य संस्कृत को श्रेष्ठ तथा निर्दोष भाषा स्वीकार किया है । भारतीय मनीषा ने इसे देववाणी उचित ही कहा है । 

Meanings :
वर्णाक्षर   -    Alphabet
तालु  - Roof of Mouth 
मूर्धा  -  the part of the tooth external to the gum (Crown) 
अस्फुट  - inarticulate 
ह्रस्व - short words
 दीर्घ - Long words
प्लुत - Overlong Words
उदात  -  Utterance
अनुदात  -  Importance (Grave)
सानुनासिक  -  Nasal sound 













































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1 comment:

  1. shared on google plus. very informative blog on Sound and Sounds of Silence

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